विधायक अमर अग्रवाल के हाथों हुआ डॉ. गुंजन मिश्रा की पुस्तकों का विमोचन,पढ़े पूरी खबर,,,,,,

बिलासपुर। दुर्गा नवमी के अवसर पर आज डॉ. गुंजन मिश्रा की लिखी गई पुस्तकें “आनंद का खजाना” और “मुझमें ही मिल” का विमोचन बिलासपुर विधायक अमर अग्रवाल के हाथों संपन्न हुआ। इस अवसर पर उपस्थित लोगों ने दोनों ही कृतियों की सराहना करते हुए डॉ. मिश्रा का उत्साहवर्धन किया।
साहित्य के प्रति बचपन से लगाव
पेंड्रा रोड (जीपीएम) निवासी डॉ. गुंजन मिश्रा, नारायण प्रसाद मिश्रा की पुत्री एवं आबकारी उपायुक्त विजय सेन शर्मा की धर्मपत्नी हैं। उन्हें बचपन से ही लेखन का शौक रहा है और इसी जुनून ने उन्हें काव्य प्रतिभा की दुनिया में विशेष पहचान दिलाई।
विधायक अमर अग्रवाल ने की प्रशंसा
पुस्तक विमोचन के अवसर पर विधायक अमर अग्रवाल ने कहा कि डॉ. मिश्रा की रचनाएँ जीवन के विविध रंगों को सरल किंतु गहन शब्दों में अभिव्यक्त करती हैं। उन्होंने साहित्य को समाज का दर्पण बताते हुए कहा—
“ऐसी कृतियाँ आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेंगी और निश्चित ही गुंजन मिश्रा काव्य क्षेत्र में नया मुकाम हासिल करेंगी।”
डॉ. मिश्रा ने साझा की अपनी प्रेरणा

डॉ. गुंजन मिश्रा ने बताया कि “आनंद का खजाना” जीवन के आंतरिक भावों, संघर्षों और आत्मिक शांति की खोज का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि विधायक के हाथों उनकी पुस्तकों का विमोचन होना उनके लिए सम्मान की बात है।
साहित्यिक और सामाजिक गरिमा से भरा कार्यक्रम
विमोचन समारोह में साहित्य प्रेमी, सामाजिक कार्यकर्ता और अनेक गणमान्य नागरिक उपस्थित रहे। कविताओं के रसास्वादन से वातावरण भक्तिभाव और साहित्यिक गरिमा से परिपूर्ण हो गया।
डॉ. गुंजन मिश्रा की कविताएँ
✍ कविता 01 – खुद से खुद की जंग
ये मेरा युद्ध है, मेरे ही विरुद्ध है,
लड़ना है खुदी से, जीतना भी खुद है।
न हथियार हाथ में, न कोई वार है,
न जिस्म पर ज़ख्म है, पर रुह बेकरार है।
ये कुरितियाँ जो जकड़े,
इनसे निकलना ही विजय है।
मैं ही प्रश्न हूँ, मैं ही उत्तर हूँ,
मैं ही रणभूमि, मैं ही समर हूँ।
खुदी से खुदी का ये अद्भुत संघर्ष है,
यही हार-जीत मेरी पहचान का गर्व है।
✍ कविता 02 – आज का उत्सव
कल, फिर कल, और कल
सब कुछ टलता ही चला गया।
आज कहीं खो गया
भीड़ में, शोर में,
या शायद उम्मीदों के बोझ में।
कुछ हाथ में नहीं,
सिर्फ़ इंतज़ार है हर बार कल का।
पर जीवन तो आज है,
साँसों की गवाही में, धड़कनों की लय में।
तो क्यों न कल को छोड़,
आज को थाम लिया जाए,
ताकि “ज़ी कल” सिर्फ़ चैनल न रहे,
बल्कि जीता-जागता आज का उत्सव बन जाए।
✍ कविता 03 – आत्मा का आसन
किसने दिया आश्वासन,
यहाँ है किसका स्थिर आसन?
सपनों के झूले झुलाता,
वादों का ये झूठा दर्पण।
क्या खूब है खेल खेलने वाला,
दुनिया को भरमाने वाला।
देख रहा बस सब देखने वाला,
मौन खड़ा है सच कहने वाला।
क्षण भर को हँसी, फिर आँसू,
जीवन का मेला सजाने वाला।
कभी आसन, कभी आश्वासन,
कभी भ्रम, कभी प्रकाशन,
सच तो वही है स्थिर खड़ा,
जो भीतर है, आत्मा का आसन।




